Saturday, November 10, 2007

अपने बारे में-2

टिकिट क्या होता है पता न था, इतना पता था इस गाड़ी से जयपुर जाते हैं. कंधे पर बस्ता लटकाए एक कोने में खडे़ हो गये. डर भी रहे थे कि क्या होगा, शायद कंपकंपी भी छूट रही थी. रेलगाडी का रोमांच भी था साथ ही 'सेवकराम', मेरे थानेदार मामा की पुलिसिया बेंत, से पीछा छूटने की तसल्ली भी. रेलगाडी़ में अन्य मुसाफ़िरों ने जब इस स्कूली छात्र को कंधे पे बस्ता टांगे अकेले सफ़र करते देखा तो उनमें मुझे लेकर जिज्ञासा जाग उठी और सवालों की बौछार भी, घबराहट में रोने के सिवा कुछ आता न था सो शुरु हो गये. एक भली महिला ने आगे बढ़ कर मुझे पुचकार के साथ अपने सीने से लगा लिया.सुब़कते हुए उन्हे पूरी कथा सुना दी. महिला भी अपने परिवार के साथ जयपुर जा रहीं थीं. इस परिवार ने मुझे अपने पास बिठा लिया. जयपुर में कहाँ जाना है, ये भी पता ना था. इतना जानते थे की पिताजी का ट्रांसपोर्ट का कारोब़ार है,जयपुर का नामी-गिरामी ट्रांसपोर्टर घराना है. इस परिवार ने जैसे मेरी सारी जिम्मेवारी उठा ली थी, मेरे पिताजी तक पहुँचाने की और पहुँचा भी दिया गया. पिताजी ने जब मुझे इस तरह अपने सामने पाया तो उनका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया, जिस पिटाई के मारे यह सारा जोखि़म उठाया, वो तो साये की तरह साथ थी. क़हर से कमतर नहीं थी ये पिटाई, रहम़ जैसी कोई संवेदना नहीं थी. इसके बाद मुझे घर पहुँचा दिया गया. माँ को तो एकबारगी साँप सूंघ गया. मुझे तो समझने-सुनने वाला था ही नहीं, दोनों ख़ानदानों में क्रोध की लपटे दहक रही थी.

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