Friday, November 9, 2007

अपने बारे में- अगली किश्त

नाना बेहद अनुशासन प्रिय इंसान होने के साथ-साथ हिटलरशाही में पूरा विश्वास रखते थे. गली में अन्य बच्चों के साथ मेरा खेलना उन्हें फ़ूटी आँख ना सुहाता था. दरअसल नाना का खेलकूद में कोई विश्वास न था. खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब वाले मुहावरे से वे पूर्णतया सहमत थे.  तीन या चार साल के जिस बालक को अपने लाड-प्यार की मचमची मिटाने के लिए उसके परिवार से सैंकड़ों मील दूर ले आये थे और जिसे खुद का ख़िलौना बनाए बैठे थे, वही खेले तो शामत आ जाती. दिन रात यही सोचता रहता था कि किसी तरह पिताजी तक पहुँच जाऊँ तो शायद जान छूट जाये. नाना का प्यार उमड़ने पर उनके कन्धे पर सवार रहने वाला बालक कब उनके गुस्से का शिकार बन सकता है, ये तो शायद उन्हें भी पता न था. किसी तरह दो बरस गुज़र गए. इस बीच इतना जान चुका था कि स्कूल से आगे जाकर जो सड़क बायें मुड़ती है, वह सीधे रेलवे स्टेशन जाती है व शाम चार बजे जो रेलगाड़ी वहाँ से गुजरती है उसी में बैठ कर जयपुर जाते हैं. एक दिन स्कूल से लौटते हुए पड़ौसी बच्चे अग्नि ने खेलने को कहा तो अपने राम नाना का गुस्सा भूल खेलने को बेचैन हो उठे और जल्दी से बस्ता घर पे रख गली में जा पहुँचे तथा गिल्ली डंडा खेलने लगे. नानी ने आवाज़ भी लगाई पर खेलने की धुन में सब अनसुना कर दिया. वे कहती रह गई कि नाना कभी भी आ सकते हैं मगर मुझ पर भी जैसे खेलने का भूत सवार हो गया था. अभी खेलते हुए कुछ ही वक्त गुज़रा था की नाना की दहाड़ती आवाज़ ने जैसे सबको कंपकंपा दिया. मैं खेलना भूल सीधे घर के अंदर भागा. मग़र देर हो चुकी थी. अब नाना के गुस्से से मुझे कोई भी बचा नहीं सकता था. नाना ने किसी की नहीं सुनी, नानी ने दौड़ कर मुझे अपने आँचल में समेटने की पूरज़ोर कोशिश की मगर नाना के आगे किस का ज़ोर. कई दिनों का लाड प्यार जैसे भयानक गुस्से में तब्दील हो चुका था. आखिर उन्हीं की सबसे प्यारी शै ने उनकी हुकुमउदूली जो कर दी थी, जिसे वे कत्तई बर्दाश्त नहीं कर सकते थे. उस दिन मेरी जो धुलाई हुई बस, तौबा-तौबा. रात भर सुबकते रहे बिस्तर में और अगले दिन स्कूल की जगह रेलवे स्टेशन जा पहुँचे. चार बज़े तक इधर-उधर भटकते रहे और रेल आते ही जहाँ जगह दिखी वहीं से बेटिकट रेल में सवार.

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