Wednesday, November 7, 2007

अपने बारे में

अपने बारे में लिखना कितना कठिन होता है यानी की खुद मियां मिटठू बनना. जे पी आंदोलन की कमान संभालने वाली मंडली के सदस्य रहे वरिष्ठ पत्रकार सुधेंदू पटेल ने एक बार ज़ोर देकर बायोडाटा लिखवाना चाहा मगर वे भी असफल रहे. आज खुद ब खुद अपने बारे में चार बातें लिखने की कोशिश कर रहा हुँ पर सफलता जैसे कोसों दूर है. बस बचपन में जब थोड़ा थोड़ा समझ में आया खुद को ननिहाल में पाया. बहुत प्यारी सी नानी, बिल्कुल कहानियों वाली नानी थीं तो प्यार से उछाल कर कन्धे पर बिठाते हुये कस्बे के खास हलवाई के ले जाकर दूध जलेबी खिलाने वाले नाना यदि किसी से नाराज़ हो जाते तो सामने वाले की खै़र नहीं. उनके गुस्से से पुरा कस्बा परिचित था और उनकी जेब में पडी देसाई छाप बीड़ी की डब्बी से भी, जिसमें बीडि़यां ना होकर एक से दस रुपये के नोट ठूंसे हुए रहते थे.नाना की इस डिब्बी का ही कमाल था की पूरा बाज़ार शिवजी के गुस्से को सहज भाव से लेता था. वैसे उनका पूरा नाम शिवलाल कश्यप था और नगर पालिका के नाकेदार थे. कस्बे से सटे राजमार्ग पर बने चूंगी नाके की नाकेदारी उन्ही के जिम्मे थी और उनकी डिब्बी में ठसाठस भरे नोट भी यहीं की उपज थी जोकि मुझे बहुत बाद में पता चला. दो मामा और एक मौसी, माँ का सुना था कि पिताजी के साथ जयपुर रहती हैं, जहाँ मेरे तीन भाई और भी हैं.जब किसी बात पर नाना या मामा पुलिस वाली बेंत से पीटते तो दर्द से तड़फते हुए दहाड़े मार कर रोते हुए माँ को पुकारता पर माँ कहां? नानी एक कोने में थर-थर कांपते हुए मुझे छोड़ देने गुहार करती रहती मगर कभी मुझे उन कसाईयों से छुड़ा नहीं पायी. पिटने के बाद नानी की गोद में सुब़कते हुए मां के पास भेजने की गुहार भी सदा बेमतलब रही, नाना के यदा कदा उमड़ने वाले लाड के चलते वे मुझे मेरी माँ से मांग लाये थे और एक वस्तु की तरह मुझे नाना के हवाले कर दिया गया था और अब नाना ही निर्णायक थे. मेरा माँ के पास लौटना, नहीं हो सकता, सो कुछ नहीं हो सकता था, यह तो उनसे उनका मनपसंद जीता जागता खिलौना वापिस ले लेना था, जब नाना का प्यार जागता तो सब कुछ बदल जाता वरना तो मेरा खेलना भी अपराध था.

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